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Wednesday, August 18, 2010
Ana
Sunday, August 8, 2010
ग़ज़ल
अभी हमको ये फ़न आया नहीं है।
उसे चाहें जिसे देखा नहीं है।
हर इक शै में तेरा जल्वा है लेकिन,
कोई जल्वा तेरे जैसा नहीं है।
निगाहें बे-ज़बाँ हैं क्या बताएं,
ज़बान ने आपको देखा नहीं है।
तेरे जल्वे तो रोशन हैं बहरसू ,
हमीं को ताब -ए-नज़्ज़ारा नहीं है।
(बहरसू : हर तरफ़ ;
ताब -ए -नज़्ज़ारा : देखने की शक्ति
तुम्हारा भेद क्या पाएँ कि हम ने,
अभी ख़ुद को भी पहचाना नहीं है।
उसी का इश्क़ हो पहचान अपनी,
‘नरेश ’ अपना नसीब ऐसा नहीं है।
ग़ज़ल
जैसे जैसे उम्र ढलती जाए है।
ज़िन्दगी की प्यास बढती जाए है।
जाने क्या जादू है उसके ज़िक्र में,
बात चल निकले तो चलती जाए है।
कैसी गर्द -आलूद है घर की फ़िज़ा,
आईने पर धूल जमती जाए है।
मिट चुकी जीने की इक -इक आरज़ू,
साँस है कमबख्त चलती जाए है।
ज़िन्दगी को लग गयी किस की नज़र,
हर ख़ुशी ग़म में बदलती जाए है।
हो गए कच्चे मकान पक्के मगर,
गाँव से तहज़ीब उठती जाए है।
आने वाले अब ‘नरेश ’ आयेंगे क्या,
ज़िन्दगी की शाम ढलती जाए है।
ग़ज़ल
और दो चार दिन ज़िन्दगी तो मिले।
जाम -ए - मय जो नहीं ज़हर -ए -ग़म ही सही,
खुश्क होंटों को थोड़ी नमी तो मिले।
इस बियाबान को शहर कैसे कहूँ,
साए ही साए हैं आदमी तो मिले।
भीड़ को शक्ल दें कारवाँ की मगर,
कारवाँ कोई राह भी तो मिले।
ए ‘नरेश ’ इश्क़ का कुछ भी दस्तूर हो,
ख़ुद भी आकर वो हम से कभी तो मिले।
Thursday, August 5, 2010
रैन बसेरा
ये घर किस का है बेटा
मैंने कहा मेरा है बाबा
कहने लगा यही कहते थे
तेरे अब्बा तेरे दादा
तेरे दादा के अब्बा, उनके अब्बा के अब्बा
तेरे बेटे पोते भी तो यही कहेंगे
लेकिन तुम से पहले जिन की मिलकीयत थी
वो अब मिलकीयत का दावा क्यों नहीं करते
लब उनके ख़ामोश हैं क्योंकर
घर जब उनका था तो उनका हक़ -ए -सकूनत
किसी क़ब्र की किसी लहद तक क्यों सिमटा है
बाबा कह कर चला गया तो
मैंने घर के दरवाज़े पर लिक्खा
‘रैनबसेरा’
लेकिन कॉलेज से आते ही
मेरे बेटे ने रूमाल से
मेरा लिक्खा साफ़ कर दिया।