जैसे जैसे उम्र ढलती जाए है।
ज़िन्दगी की प्यास बढती जाए है।
जाने क्या जादू है उसके ज़िक्र में,
बात चल निकले तो चलती जाए है।
कैसी गर्द -आलूद है घर की फ़िज़ा,
आईने पर धूल जमती जाए है।
मिट चुकी जीने की इक -इक आरज़ू,
साँस है कमबख्त चलती जाए है।
ज़िन्दगी को लग गयी किस की नज़र,
हर ख़ुशी ग़म में बदलती जाए है।
हो गए कच्चे मकान पक्के मगर,
गाँव से तहज़ीब उठती जाए है।
आने वाले अब ‘नरेश ’ आयेंगे क्या,
ज़िन्दगी की शाम ढलती जाए है।
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