घर ही जलने दो कुछ रोशनी तो मिले।
और दो चार दिन ज़िन्दगी तो मिले।
जाम -ए - मय जो नहीं ज़हर -ए -ग़म ही सही,
खुश्क होंटों को थोड़ी नमी तो मिले।
इस बियाबान को शहर कैसे कहूँ,
साए ही साए हैं आदमी तो मिले।
भीड़ को शक्ल दें कारवाँ की मगर,
कारवाँ कोई राह भी तो मिले।
ए ‘नरेश ’ इश्क़ का कुछ भी दस्तूर हो,
ख़ुद भी आकर वो हम से कभी तो मिले।
और दो चार दिन ज़िन्दगी तो मिले।
जाम -ए - मय जो नहीं ज़हर -ए -ग़म ही सही,
खुश्क होंटों को थोड़ी नमी तो मिले।
इस बियाबान को शहर कैसे कहूँ,
साए ही साए हैं आदमी तो मिले।
भीड़ को शक्ल दें कारवाँ की मगर,
कारवाँ कोई राह भी तो मिले।
ए ‘नरेश ’ इश्क़ का कुछ भी दस्तूर हो,
ख़ुद भी आकर वो हम से कभी तो मिले।
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