ऊँच-नीच छोटा-बड़ा हीं-श्रेष्ठ नहीं कोय।
सबके सब ब्रह्मांश हैं रूप नाम कुछ होय।।
______________________________________________________________
कैसी पूजा वन्दना कैसा व्रत उपवास।
लोग कहें धर्मात्मा सुनकर मन उल्लास।।
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बेहोशी से जग मिले मिले होश से ज्ञान।
यह चुनाव तुम ख़ुद करो माया या भगवान।।
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त तरुणाई में धरो संयम काया-योग।
बुद्ध भये पर आप ही छुटी जैहैं सब भोग।।
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तीन वृत्तियाँ चित्त की क्षिप्त मूढ़ विक्षिप्त।
मोहमाया में बाँधकर मन को राखें लिप्त।।
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सृष्टि-नियन्ता का करो मुक्तकण्ठ गुणगाण।
मुक्तहस्त जिसने दिया पानी हवा का दान।।
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सिद्ध सदा चौकस रहे जागे आठों याम।
तुरत ऊर्जा भेज दे जब शीष करे प्रणाम।।
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सूफ़ीमत सिद्धान्त को सहज योग ही ज्ञान।
भिन्न मात्र शब्दावली साधन साध्य समान।।
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वाल्मीकि तुलसी हुए कीर्तन भक्त महान।
जीवन भर करते रहे रघुवर का गुणगान।।
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सहज स्वस्थ मन को करें पंचावरण अपंग।
लकड़ी तैरे नीर पर डूबे लौह के संग।।
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मिलता है तो खोज ले बुद्धों का सत्संग।
मन प्रमुदित पुलकित रहें तेरे अंग-प्रत्यंग।।
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आश्विन आशा से बँधा जग जीवन-व्यापार।
कभी तो लेगा तू मनुज जीवात्मा का सार।।
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जब तक उससे दूर थी मेरे थे सौ रंग।
उसके रंग में रंग गई जब लागी पी अंग।।
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कितने दिन ये ज़िन्दगी यह जग कितनी देर।
क्या जाने किस मोड़ पर यम-सेना ले घेर।।
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दुख सुख से कमतर नहीं जो सिमरावे नाम।
सुख के इच्छुक प्राणियो सुख बिसरावे राम।।
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मुर्शिद के अंगना खिला ब्रह्म तेज हर ओर।
जो जब जागा नींद से तब से उसकी भोर।।
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दरवाज़े पर आपके खड़ा पसारे हाथ।
अ लेकर स दीजिए मुझ अनाथ को नाथ।।
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आत्मा चले शरीर से पहुँचे सृष्टि के पार।
मिले ब्रह्म से अंक भर यह है साक्षात्कार।।
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आश्विन आशा से बँधा जग जीवन-व्यापार।
कभी तो लेगा तू मनुज जीवात्मा की सार।।
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सत्गुरु बिरला ही कोई साधू सन्त अनेक।
सर्प करोड़ों भूमी पर मणियुत कोई एक।।
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भादों भान न नर तुझे मस्तक बादल घोर।
यह बरसे तो झूमकर नाचे आत्मा-मोर।।
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अंकुर पौधा फूल फल एक बीज के रूप।
ऐसे जग और ब्रह्म हैं जैसे सूरज धुप।।
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आषाढ़ आत्मा रोकती मत कर रे नर पाप।
कान धरन नहीं देत है धन जोबन का ताप।।
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जागृत रहकर कीजिए सकल देह-व्यापार।
सुप्तावस्था में किए कर्म सभी निस्सार।।
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कुतर-कुतरकर खा गए पूँजी मूषक पाँच।
गृह-स्वामी बेसुध पड़ा मूषक भरें कुलाँच।।
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पंचम चक्र विशुद्ध है कण्ठदेश है स्थान।
मन विशुद्ध आकाश सम शोक शंक अवसान।।
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संशय रिपु सबसे बड़ा घात करे गंभीर।
अमृत को फिंकवाय के दे पीने को नीर।।
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अन्तम में डूबे बिना समझ पड़े क्यों मौन।
अपने को जाने बिना उस को जाने कौन।।
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तीन आभूषण देह के ह्रदय चेतना बुद्धि।
ध्यान-योग से होत है इन तीनों की शुद्धि।।
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निश्चय करके क्षणिक को बदलो अस्थिर माहिं।
अस्थिर को फिर स्थिर करो यह कुछ मुश्किल नाहिं।।
_______________________________________________________________
बिनु साधन के साध्य क्या साधन क्या बिनु साध्य।
बिनु उद्यम सम्भव नहीं भोग हो या वैराग्य।।
_______________________________________________________________
रामायण में स्पष्ट हैं भक्ति के नौ रूप।
सोदाहरण वर्णन करें नवधा भक्ति अनूप।।
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कैसी पूजा वन्दना कैसा व्रत उपवास।
लोग कहें धर्मात्मा सुनकर मन उल्लास।।
_______________________________________________________________
बेहोशी से जग मिले मिले होश से ज्ञान।
यह चुनाव तुम ख़ुद करो माया या भगवान।।
_______________________________________________________________
आत्म-तत्तव की खोज ही स्थिर वैराग्य महान।
आत्म-तत्तव के व्याज से साईं की पहचान।।
_______________________________________________________________
मैली चादर देह की भीतर गोरी नार।
छिलका मैला देखकर तजो न फल-आहार।।
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यश-अपयश सुख-दुःख से जो ऊपर उठ जाए।
हानि-लाभ जीवन-मरण सब कुछ सम हो जाए।।
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यहाँ चाहिए या वहाँ सोचो तुम सम्मान।
सहजासन मिलना कठिन सिंहासन आसान।।
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मठ डेरे आश्रम बड़े लेने को संन्यास।
मानव तन सबसे बड़ा जहाँ ब्रह्म का बास।।
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कोष प्राणमय दूसरा पंच वायु को जान।
प्राण अपाण समान त्रै दो उदान अरु व्यान।।
_______________________________________________________________
आस दिलाई मुक्ति की लिया दान उत्कोच।
अनदिन बेचा साध ने ब्रह्म बिना संकोच।।
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कालजयी है ऊर्जा मृत्युंजय सर्वेश।
शेष अनश्वर कुछ नहीं कहे फ़क़ीर नरेश।।
_______________________________________________________________
खुली आँख से गुरु दिखे बन्द आँख से नूर।
और सभी कुछ राखिये मेरी नज़र से दूर।।
_______________________________________________________________
लहरों के संगीत में छिपा अलौकिक नाद।
उसे ब्रह्म-छवि जानिए जिससे मिले उन्माद।।
_______________________________________________________________
तन का साधना योग है मन का सधना ध्यान।
योगी जब ध्यानी बने तब पावे भगवान।।
_______________________________________________________________
बिन खाये क्यों पेट को भोजन हो उपलब्ध।
रहे निलम्बित कर्म बिन वह भी जो प्रारब्ध।।
_______________________________________________________________
ब्रह्म ऊर्जा रूप में दे अपना आभास।
खुली आँख से दूर है बंद आँख से पास।।
_______________________________________________________________
बिन मुर्शिद सम्भव नहीं मन हो प्रभु की ओर।
बिन मुर्शिद-रवि के उगे मिटे न भव-तम घोर।।
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साधू वह जो सध गया गुरु जो गुरु गंभीर।
पीर वही जो ओढ़ ले जन-मानस की पीर।।
_______________________________________________________________
मन वाणी की साधना करे ध्यान की सृष्टि।
भीतर के बदलाव से बदले जीवन-दृष्टि।।
_______________________________________________________________
या तो अपने अंश को वापिस लेहु बुलाय।
या इतना विस्तार दे मैं का तू हो जाय।।
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जिनकी ख़ातिर पाप का ढोया सिर अघ-भार।
अन्त समय वे चल दिए बीच चिता के डार।।
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विमल हृदय वाणी अमल मन में भक्ति अनन्य।
जो जन ऐसा हो रहे उसका जीवन धन्य।।
_______________________________________________________________
पूरे जीवन काल में दिन हैं चार महान।
जन्म दीक्षा प्रभु-मिलन चौथे देहावसान।।
गुरु सुनार शिष स्वर्ण है पानी करे पिघलाय।
पूरब रूप गवाई के नूतन रूप दिखाय।।
_______________________________________________________________
जो नरेश परकाज हित करे आत्म-उत्सर्ग।
ऐसे बिरले व्यक्ति की जाति न कोई वर्ग।।
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मन की शान्ति के लिए सारा जग-व्यापार।
जो अशान्त मन को करे तज वह कारोबार।।
_______________________________________________________________
अपने मुहँ से क्या कहूँ अब मैं अपना हाल।
अन्तरयामी आपसे छिपा नहीं अहवाल।।
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साधक जिसकी आत्मा पितर लोक कर पार।
सिद्धलोक विचरण करे निज सामर्थ्य अनुसार।।
________________________________________________________________
धन सम्पत्ति माल ज़र ज़न ज़मीन घरबार।
सब अस्थायी वस्तुएँ स्थायी नाम आधार।।
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सहजासन सबसे कठिन बिन प्रयास श्रमहीन।
केवल निष्ठा भाव से हो इस पर आसीन।।
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कार्तिक काल कठोर है दे नहीं पल भर छूट।
भाण्डा गढ़ा कुम्हार ने गया अचानक फूट।।
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पपिहे ने पी-पी कहा कोयल बोली कूउउ।
उनकी देखादेखी मैं बोला अल्ला-हूउउ।।
________________________________________________________________
थोड़े दिन में व्यक्ति फिर डूबे माया माहिं।
इस जग की निस्सारता याद रहे फिर नाहिं।।
________________________________________________________________
गुरु सम पूरी सृष्टि में कोई नहीं नरेश।
गुरु की छवि में देखिये ब्रह्मा विष्णु महेश।।
_________________________________________________________________
भ्रम ही सही पर जब तलक फल की आस न होय।
ऐ नरेश संसार में कर्म करे नहीं कोय।।
_________________________________________________________________
लक्षण हैं उत्तेजना तीव्र श्वास-प्रश्वास।
रक्तचाप द्रुत क्रोध में चिन्तन-मनन विनास।।
_________________________________________________________________
इनके ऊपर सिद्ध है गुरु-पद आसीन।
चतुर्थ कोटि में ब्रह्म हैं प्रतिपल प्रभु में लीन।।
_________________________________________________________________
ब्रह्म-मिलन के बाद जब लौटे तन में जीव।
बक़ा प्राप्त कर बुद्ध हो साधक मोद अतीव।।
_________________________________________________________________
जैसे बिन अभ्यास के कोई हुनर नहीं आए।
वैसे बिन अभ्यास के वृत्ति न बदली जाए।।
_________________________________________________________________
यदि भीतर जागृत रहे प्रिय-वियोग की आग।
अनुरागी तन सहित भी सम्भव है वैराग।।
_________________________________________________________________
इच्हा प्राप्ति अभीष्ट की है मन का संकल्प।
और अनिष्ट परिहार की इच्हा बने विकल्प।।
__________________________________________________________________
मन के जीते जीत है मन के हारे हार।
सेहजासन के सामने सिंहासन बेकार।।
__________________________________________________________________
इसी चक्र के नाम हैं दिव्यनेत्र शिवनेत्र।
दिव्य दृष्टि देकर करे तेजस सब तन-क्षेत्र।।
__________________________________________________________________
बुद्धों की संगत मिले सिद्धों की आसीस।
ऐसा जीवन यदि मिले जन्म धरें दस-बीस।।
__________________________________________________________________
चलकर अपने पाँव से कटे साधना पन्थ।
गोद उठाकर ले चले साधू न कोई ग्रन्थ।।
__________________________________________________________________
ऋषियों ने जिस सत्य को किया स्वयं अनुभूत।
कालान्तर में बन गया वह षड-दर्शन पूत।।
__________________________________________________________________
कंकर मिट्टी जोड़के भवन करे तैयार।
बना-बनाया ढाह दे कौन ऐसा मेमार।।
__________________________________________________________________
अहम पिता माँ वासना क्रोध पूत नृशंस।
जिसके अंगना खेलते उसके घर विध्वंस।।
__________________________________________________________________
जिन कर्मों से जागती विस्मृति उनको त्याग।
तन से जग को भोग ले मन से हरि अनुराग।।
__________________________________________________________________
बिन प्रयास मोहजाल से छूटी सके नहीं कोय।
ज्यों-ज्यों भीगे कामरी त्यों-त्यों भारी होय।।
__________________________________________________________________
माँ सत्ता धन बाप की अहंकार सन्तान।
जिसके अंगना जा घुसे उसके घर तूफ़ान।।
__________________________________________________________________
ऊँच-नीच छोटा-बड़ा हीन-श्रेष्ठ नहीं कोय।
सबके सब ब्रह्मांश हैं रूप नाम कुछ होय।।
__________________________________________________________________
करुणामय करुणाकरण करुणापति करुणेश।
जाने अजाने पाप की माँगे क्षमा नरेश।।
__________________________________________________________________
पहले तल पर जागृति जग को जान अनित्य।
परम्परा में प्राप्त जो करो धर्म के कृत्य।।
__________________________________________________________________
वह नरेश उत्तम पुरुष जिये मरे जो नित्य।
चीरे माया-मेघ को उभरे ज्यों आदित्य।।
__________________________________________________________________
फ़िक्र आनागत की करे बीते का ग़म खाए।
कल और कल के पाट में वर्तमान पिस जाए।।
__________________________________________________________________
दूर रखो संकल्प से निन्दा चोरी रोग।
मन प्रमुदित हर्षित रहे कभी न व्यापे सोग।।
__________________________________________________________________
रूप सभी ये भक्ति के करें एक ही काम।
जागृत कर सद्वृत्ति को मन को दें विश्राम।।
__________________________________________________________________
उसकी महिमा क्या कहें जो साधन-सम्पन्न।
चिल्गोज़ा दे बर्फ़ में मिट्टी में दे अन्न।।
__________________________________________________________________
करे एक यह मूढ़ मन मर्यादा को भंग।
अधोमुखी हैं अन्यथा तन के सारे अंग।।
__________________________________________________________________
हम सब हैं कठपुतलियाँ डोर किसी के हाथ।
वैसे-वैसे हम करें जैसे कराए नाथ।।
__________________________________________________________________
भव को सागर कर दिया निज छवि-दर्शन हेतु।
किन्तु ब्रह्म ने साथ ही दिया ध्यान का सेतु।।
__________________________________________________________________
तन को कैसे मान लें प्राणी की पहचान।
प्राणी तो कोई और है तन उसका परिधान।।
__________________________________________________________________
माया का और ब्रह्म का रिश्ता गहन गंभीर।
बिना नीर नदिया नहीं बिन नदिया नहीं नीर।।
__________________________________________________________________
साधन भी शुभ चाहिए साध्य अगर है ठीक।
कोण बनाए किस तरह टेढ़ी-मेढ़ी लीक।।
__________________________________________________________________
वेद ग्रन्थ सब पढ़ लिए पढना न आया मौन।
पढ़-लिखकर अनपढ़ रहा मुझ-सा मूरख कौन।।
__________________________________________________________________
मिलता है तो खोज ले बुद्धों का सत्संग।
मन प्रमुदित पुलकित रहें तेरे अंग-प्रत्यंग।।
__________________________________________________________________
कर्म बिना कैसे निभे मानव तन का धर्म।
जप तप है किस काम का त्याग दिया यदि कर्म।।
__________________________________________________________________
काम ग़लत भी ठीक है यदि मन में नहीं चोर।
भरत पादुका सिर धरी वाह-वाह चहुँ ओर।।
__________________________________________________________________
दीक्षित साधक के लिए योग नहीं अनिवार्य।
उसकी अपनी ऊर्जा करे अपेक्षित कार्य।।
__________________________________________________________________
कितने दिन यह ज़िन्दगी यह जग कितनी देर।
क्या जाने किस मोड़ पर यम-सेना ले घेर।।
__________________________________________________________________
आत्मा लौटे देह में ब्रह्म-ऊर्जा ले संग।
हर समाधि का सहज फल पुलकित अंग-प्रत्यंग।।
__________________________________________________________________
ऊर्जा देने से बड़ा नहीं है पर-उपकार।
दोनों हाथों बाँट दो ऊर्जा का भण्डार।।
__________________________________________________________________
यदि तेरा आचरण हो प्रकृति के अनुकूल।
दैहिक बौद्धिक मानसिक सब दुख हों निर्मूल।
__________________________________________________________________
साधक जिसकी आत्मा निकले नभ को चीर।
भँवर गुफा का तम लखे लखे वैतरणी नीर।।
__________________________________________________________________
तीनों नदियाँ पृष्ट की मिलें यहाँ पर आए।
युक्त त्रिवेणी नाम तब आज्ञाचक्र धराए।।
__________________________________________________________________
साधक वह गुरु-मंत्र का मिला जिसे वरदान।
गुरु के संरक्षण तले जो करता है ध्यान।।
__________________________________________________________________
दूषित काम-कलाप से जगे बोध अपराध।
संयम काम-कलाप से ऊर्जा चले अबाध।।
___________________________________________________________________
वही लोग वही आप हम वही सृष्टि का साज।
माया के वश हो गए परिचय के मोहताज।।
___________________________________________________________________
निष्ठा में बाधा पड़े श्रद्धा हो विकलांग।
काल-बेली संशय बढ़े सोखे तरु सर्वांग।।
___________________________________________________________________
उसने ही सब सुख दिये जिसने दिया शरीर।
तन से भोगो जगत को मन से रहो फ़कीर।।
___________________________________________________________________
हिरदे में छवि ब्रह्म की जिह्वा पर प्रभु-नाम।
भोगो इस संसार को कर्म करो निष्काम।।
___________________________________________________________________
सहज रहो हर हाल में हँसो हँसी जब आय।
रोवो तब-तक ओक भर जब तक मन न अघाय।।
___________________________________________________________________
हर राजा संग्रह करे धन धरती सुख साज।
ऐसा राजा कौन जो पहने फ़कीरी ताज।।
___________________________________________________________________
तू जिसको अपना कहे वह घर किसका ठौर।
तुझसे पहले था कोई बाद तेरे कोई और।।
___________________________________________________________________
द दाना कोई नहीं कोई नहीं नादान।
अपना-अपना कर्मफल भोगे सकल जहान।।
___________________________________________________________________
मन जब यह निश्चय करे जग टेसू का फूल।
उपजे स्थिर वैराग्य तब खोजे अपना मूल।।
___________________________________________________________________
ध्यान न सबके वास्ते ध्यान न सबका भाग।
ध्यान कोई बिरला करे जिसके अन्दर आग।।
___________________________________________________________________
प्रकृति के आकार में निहित ब्रह्म का रूप।
भाव-भंगिमा ब्रह्म की वर्षा हो या धूप।।
___________________________________________________________________
काया माया भाग हैं कर्मों का प्रारब्ध।
जो तूने बोया नहीं कैसे हो उपलब्ध।।
___________________________________________________________________
भिक्षुक साधू सन्त सब होते नहीं फ़क़ीर।
अक्षर-अक्षर शब्द का भरा ज्ञान गम्भीर।।
___________________________________________________________________
निराकार प्रिय से करो इतना गहरा नेह।
उतरे हिय-अंगनाई में धरकर सूक्षम देह।।
___________________________________________________________________
ठ ठण्डी हो जाएगी जिस दिन तेरी देह।
भूतल नीचे बास हो ऊपर नीचे खेह।।
___________________________________________________________________
तू बादल तू दामिनी तू नदिया तू प्यास।
निज के बाहर निज निरख समझ सृष्टि की रास।।
___________________________________________________________________
अल्ला-हू का विर्द हो या हो ॐ का जाप।
श्वास सधे तन स्वस्थ हो मिटे हृदय का ताप।।
___________________________________________________________________
साधक वह जिसको मिले सतगुरु का अनुराग।
शंका तर्क वितर्क को दे जो मन से त्याग।।
___________________________________________________________________
माटी सम तन के लिए सौ साधन सौ यत्न।
एक न उसके वास्ते छिपा जो भीतर रत्न।।
___________________________________________________________________
यहाँ चाहिए या वहाँ सोचो तुम सम्मान।
सहजासन मिलना कठिन सिंहासन आसान।।
___________________________________________________________________
मैं सस्सी मैं सोहणी मैं साहिबाँ मैं हीर।
साबित कर दिखलाऊँ मैं भेज कोई गुरु पीर।।
___________________________________________________________________
जब तक सीमाहीन हैं लोभ मोह मद काम।
तब तक यह सम्भव नहीं मन पावे विश्राम।।
___________________________________________________________________
कर्मकाण्ड के मन्त्र तो हर पंडित ले बोल।
ऐसा पण्डित कौन जो ऊर्जा-पट दे खोल।।
___________________________________________________________________
बिन सत्ता के धन नहीं बिन धन सत्ता नाहीं।
दोनों मिल क्रीड़ा करें अहंकार उपजाहिं।।
___________________________________________________________________
हम सब हैं कठपुतलियाँ डोर किसी के हाथ।
वैसे-वैसे हम करें जैसे कराए नाथ।।
___________________________________________________________________
पूर्व साधना चार तल जब तक हों नहीं पार।
पंचम तल की कामना तब तक है बेकार।।
___________________________________________________________________
कैसी करुणा प्रभु करी कैसी दया दिखाई।
मूर्च्छित करके कह दिया अब सोना नहीं भाई।।
___________________________________________________________________
मनन चरण है दूसरा गुरु-उपदेश विचार।
निज विवेक से जान लो गुरु-वचनों का सार।।
___________________________________________________________________
शून्य चक्र मस्तिष्क में अन्तिम सप्तम चक्र।
जगे ब्रह्म-ऊर्जा दिखे यत्र तत्र सर्वत्र।।
___________________________________________________________________
ये याद आए हर समय जिसे जगत का पीर।
और न कुछ सूझे जिसे उसको कहें फ़क़िर।।
___________________________________________________________________
वेद ग्रन्थ सब पढ़ लिए पढ़ना न आया मौन।
पढ़-लिखकर अनपढ़ रहा मुझ-सा मूरख कौन।।
___________________________________________________________________
मुर्शिद के अंगना बजे ब्रह्मनाद का चंग।
कानों में रस घुल रहा नाचें अंग-प्रत्यंग।।
___________________________________________________________________
करे प्रकाशित दिव्यता मन में यही विचार।
सतसई यह अध्यातम की रची लोक उपकार।।
___________________________________________________________________
हंडिया तोड़ी पीर ने कर भोजन धो हाथ।
जो कल देगा अन्नजल हंडिया भी दे साथ।।
___________________________________________________________________
आत्मा की छवि में निहित परमात्मा का रूप।
खोजो आत्मानन्द में ब्रम्हानन्द अनूप।।
___________________________________________________________________
हे दाता मोहिं दीजिए भक्ष्य अभक्ष्य शऊर।
पेट भरे या नहीं भरे नीयत भरे ज़रूर।।
___________________________________________________________________
मन क्या है यह जानना नहीं इतना आसान।
पल में हो नवनीत सम पल में वज्र समान।।
___________________________________________________________________
तुझसे नाता जोड़ के छूटे सब सम्बंध।
अर्थहीन लगने लगे स्पर्श रूप रस गंध।।
___________________________________________________________________
तन मन अर्पण कर दिया अब जानें गुरुदेव।
राखें मारें जो करें अब इक उनकी टेव।।
___________________________________________________________________
एक चोर ही कम नहीं करने को कंगाल।
पाँच-पाँच जिस गेह में उसका कौन हवाल।।
___________________________________________________________________
आँखें जो कुछ देखतीं वह भी नहीं असत्य।
किन्तु दृष्टि के सत्य से बड़ा है अनुभव सत्य।।
___________________________________________________________________
क्या मेरी आराधना कैसी मेरी भक्ति।
निसदिन माँगूँ आपसे धन वैभव सुख शक्ति।।
___________________________________________________________________
सन्त नहीं साधू नहीं नहीं पण्डित विद्वान।
सदय प्रकृति ने दिया कविता का वरदान।।
___________________________________________________________________
भीतर के सुख से बड़ा बाहर सुख नहीं कोय।
मन विचलित उतना अधिक जितना अधिक धन होय।।
___________________________________________________________________
सर्वप्रथम गुरुदेव के श्री-चरणों का ध्यान।
जिनके अनुग्रह से मिला मुझको विद्या-दान।।
___________________________________________________________________
मन क्या हो यह जानना नहीं इतना आसान।
पल में हो नवनीत सम पल में वज्र समान।।
___________________________________________________________________
पवन हमारे पीव को देना यह सन्देश।
झोंका भेजे गन्ध का महक उठे परिवेश।।
___________________________________________________________________
हानि रोग संकट समय याद आवे भगवान।
यह अस्थिर वैराग्य है कुछ दिन का मेहमान।।
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मैं क्या हूँ मैं कौन हूँ क्या है मेरे हाथ।
अपना नाम जपाइ ले करि अनुकम्पा नाथ।।
___________________________________________________________________
दे कुछ या नहीं दे मगर कर यह दीन दयाल।
मेरे लब पर आयु भर आए नहीं सवाल।।
___________________________________________________________________
क्या नमाज़ क्या आरती क्या ज़कात क्या दान।
व्रत रोज़ा किस अर्थ का यदि मन में अभिमान।।
___________________________________________________________________
तन का ताप उतार दे देकर कड़वी नीम।
मन का संशय मेट दे ऐसा कौन हकीम।।
___________________________________________________________________
नाम जपा और साथ ही लई मजूरी माँग।
निष्ठा अर्पण भाव का काहे रच्या सवाँग।।
___________________________________________________________________
संशय और विवेक में चलता है संघर्ष।
पर विवेक की जीत में आत्मा का उत्कर्ष।।
___________________________________________________________________
क्या बादल की दोस्ती क्या बादल से आस।
सागर भर पानी बिना बुझे न मरु की प्यास।।
___________________________________________________________________
रोटी कपड़ा गेह की चिन्ता हरदम यार।
उस पर भी कुछ छोड़ दे जो है पालनहार।।
___________________________________________________________________
यह माया भी ब्रह्म का अपना ही विस्तार।
प्राणी सुख दुख भोगता अपने कर्म अनुसार।।
___________________________________________________________________
साधक जिसकी आत्मा करे नित्य परवाज़।
श्रवण रहें सुनते सदा अनहद की आवाज़।।
___________________________________________________________________
साधन भी शुभ चाहिए साध्य अगर है ठीक।
कोण बनाए किस तरह टेढ़ी-मेढ़ी लीक।।
___________________________________________________________________
सन्त नहीं साधू नहीं नहीं पण्डित विद्वान।
सदय प्रकृति ने दिया कविता का वरदान।।
___________________________________________________________________
कुछ तो गुण पैदा करो अपने अन्दर यार।
क्यों तुमको दीक्षा मिले क्यों गुरु करे स्वीकार।।
___________________________________________________________________
तन का ताप उतार दे देकर कड़वी नीम।
मन का संशय मेट दे ऐसा कौन हकीम।।
___________________________________________________________________
संशय और विवेक में चलता है संघर्ष।
पर विवेक की जीत में आत्मा का उत्कर्ष।।
___________________________________________________________________
आत्मा की छवि में निहित परमात्मा का रूप।
खोजो आत्मानन्द में ब्रह्मानन्द अनूप।।
___________________________________________________________________
भीतर के सुख से बड़ा बाहर सुख नहीं कोये।
मन विचलित उतना अधिक जितना अधिक धन होए।।
___________________________________________________________________
बिन अनुभव किस काम का कोरा पुस्तक-ज्ञान।
काम न दे तलवार का कैसी भी हो म्यान।।
___________________________________________________________________
नहीं आरती अर्चना जब तक नहीं अनुराग।
बिन अनुभव संभव नहीं आशा तृष्णा त्याग।।
___________________________________________________________________
हंडिया तोड़ी पीर ने कर भोजन धो हाथ।
जो कल देगा अन्नजल हंडिया भी दे साथ।।
___________________________________________________________________
इश्क़ चरण है दूसरा केवल प्रभु से प्यार।
बनी प्रेमिका आत्मा प्रेमी ब्रह्म अपार।।
सबके सब ब्रह्मांश हैं रूप नाम कुछ होय।।
______________________________________________________________
कैसी पूजा वन्दना कैसा व्रत उपवास।
लोग कहें धर्मात्मा सुनकर मन उल्लास।।
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बेहोशी से जग मिले मिले होश से ज्ञान।
यह चुनाव तुम ख़ुद करो माया या भगवान।।
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त तरुणाई में धरो संयम काया-योग।
बुद्ध भये पर आप ही छुटी जैहैं सब भोग।।
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तीन वृत्तियाँ चित्त की क्षिप्त मूढ़ विक्षिप्त।
मोहमाया में बाँधकर मन को राखें लिप्त।।
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सृष्टि-नियन्ता का करो मुक्तकण्ठ गुणगाण।
मुक्तहस्त जिसने दिया पानी हवा का दान।।
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सिद्ध सदा चौकस रहे जागे आठों याम।
तुरत ऊर्जा भेज दे जब शीष करे प्रणाम।।
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सूफ़ीमत सिद्धान्त को सहज योग ही ज्ञान।
भिन्न मात्र शब्दावली साधन साध्य समान।।
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वाल्मीकि तुलसी हुए कीर्तन भक्त महान।
जीवन भर करते रहे रघुवर का गुणगान।।
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सहज स्वस्थ मन को करें पंचावरण अपंग।
लकड़ी तैरे नीर पर डूबे लौह के संग।।
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मिलता है तो खोज ले बुद्धों का सत्संग।
मन प्रमुदित पुलकित रहें तेरे अंग-प्रत्यंग।।
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आश्विन आशा से बँधा जग जीवन-व्यापार।
कभी तो लेगा तू मनुज जीवात्मा का सार।।
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जब तक उससे दूर थी मेरे थे सौ रंग।
उसके रंग में रंग गई जब लागी पी अंग।।
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कितने दिन ये ज़िन्दगी यह जग कितनी देर।
क्या जाने किस मोड़ पर यम-सेना ले घेर।।
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दुख सुख से कमतर नहीं जो सिमरावे नाम।
सुख के इच्छुक प्राणियो सुख बिसरावे राम।।
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मुर्शिद के अंगना खिला ब्रह्म तेज हर ओर।
जो जब जागा नींद से तब से उसकी भोर।।
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दरवाज़े पर आपके खड़ा पसारे हाथ।
अ लेकर स दीजिए मुझ अनाथ को नाथ।।
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आत्मा चले शरीर से पहुँचे सृष्टि के पार।
मिले ब्रह्म से अंक भर यह है साक्षात्कार।।
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आश्विन आशा से बँधा जग जीवन-व्यापार।
कभी तो लेगा तू मनुज जीवात्मा की सार।।
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सत्गुरु बिरला ही कोई साधू सन्त अनेक।
सर्प करोड़ों भूमी पर मणियुत कोई एक।।
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भादों भान न नर तुझे मस्तक बादल घोर।
यह बरसे तो झूमकर नाचे आत्मा-मोर।।
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अंकुर पौधा फूल फल एक बीज के रूप।
ऐसे जग और ब्रह्म हैं जैसे सूरज धुप।।
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आषाढ़ आत्मा रोकती मत कर रे नर पाप।
कान धरन नहीं देत है धन जोबन का ताप।।
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जागृत रहकर कीजिए सकल देह-व्यापार।
सुप्तावस्था में किए कर्म सभी निस्सार।।
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कुतर-कुतरकर खा गए पूँजी मूषक पाँच।
गृह-स्वामी बेसुध पड़ा मूषक भरें कुलाँच।।
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पंचम चक्र विशुद्ध है कण्ठदेश है स्थान।
मन विशुद्ध आकाश सम शोक शंक अवसान।।
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अमृत को फिंकवाय के दे पीने को नीर।।
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अन्तम में डूबे बिना समझ पड़े क्यों मौन।
अपने को जाने बिना उस को जाने कौन।।
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तीन आभूषण देह के ह्रदय चेतना बुद्धि।
ध्यान-योग से होत है इन तीनों की शुद्धि।।
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निश्चय करके क्षणिक को बदलो अस्थिर माहिं।
अस्थिर को फिर स्थिर करो यह कुछ मुश्किल नाहिं।।
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बिनु साधन के साध्य क्या साधन क्या बिनु साध्य।
बिनु उद्यम सम्भव नहीं भोग हो या वैराग्य।।
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रामायण में स्पष्ट हैं भक्ति के नौ रूप।
सोदाहरण वर्णन करें नवधा भक्ति अनूप।।
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कैसी पूजा वन्दना कैसा व्रत उपवास।
लोग कहें धर्मात्मा सुनकर मन उल्लास।।
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बेहोशी से जग मिले मिले होश से ज्ञान।
यह चुनाव तुम ख़ुद करो माया या भगवान।।
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आत्म-तत्तव की खोज ही स्थिर वैराग्य महान।
आत्म-तत्तव के व्याज से साईं की पहचान।।
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मैली चादर देह की भीतर गोरी नार।
छिलका मैला देखकर तजो न फल-आहार।।
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यश-अपयश सुख-दुःख से जो ऊपर उठ जाए।
हानि-लाभ जीवन-मरण सब कुछ सम हो जाए।।
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यहाँ चाहिए या वहाँ सोचो तुम सम्मान।
सहजासन मिलना कठिन सिंहासन आसान।।
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मठ डेरे आश्रम बड़े लेने को संन्यास।
मानव तन सबसे बड़ा जहाँ ब्रह्म का बास।।
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कोष प्राणमय दूसरा पंच वायु को जान।
प्राण अपाण समान त्रै दो उदान अरु व्यान।।
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आस दिलाई मुक्ति की लिया दान उत्कोच।
अनदिन बेचा साध ने ब्रह्म बिना संकोच।।
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कालजयी है ऊर्जा मृत्युंजय सर्वेश।
शेष अनश्वर कुछ नहीं कहे फ़क़ीर नरेश।।
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खुली आँख से गुरु दिखे बन्द आँख से नूर।
और सभी कुछ राखिये मेरी नज़र से दूर।।
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लहरों के संगीत में छिपा अलौकिक नाद।
उसे ब्रह्म-छवि जानिए जिससे मिले उन्माद।।
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तन का साधना योग है मन का सधना ध्यान।
योगी जब ध्यानी बने तब पावे भगवान।।
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बिन खाये क्यों पेट को भोजन हो उपलब्ध।
रहे निलम्बित कर्म बिन वह भी जो प्रारब्ध।।
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ब्रह्म ऊर्जा रूप में दे अपना आभास।
खुली आँख से दूर है बंद आँख से पास।।
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बिन मुर्शिद सम्भव नहीं मन हो प्रभु की ओर।
बिन मुर्शिद-रवि के उगे मिटे न भव-तम घोर।।
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साधू वह जो सध गया गुरु जो गुरु गंभीर।
पीर वही जो ओढ़ ले जन-मानस की पीर।।
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मन वाणी की साधना करे ध्यान की सृष्टि।
भीतर के बदलाव से बदले जीवन-दृष्टि।।
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या तो अपने अंश को वापिस लेहु बुलाय।
या इतना विस्तार दे मैं का तू हो जाय।।
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जिनकी ख़ातिर पाप का ढोया सिर अघ-भार।
अन्त समय वे चल दिए बीच चिता के डार।।
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विमल हृदय वाणी अमल मन में भक्ति अनन्य।
जो जन ऐसा हो रहे उसका जीवन धन्य।।
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पूरे जीवन काल में दिन हैं चार महान।
जन्म दीक्षा प्रभु-मिलन चौथे देहावसान।।
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पूरब रूप गवाई के नूतन रूप दिखाय।।
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जो नरेश परकाज हित करे आत्म-उत्सर्ग।
ऐसे बिरले व्यक्ति की जाति न कोई वर्ग।।
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मन की शान्ति के लिए सारा जग-व्यापार।
जो अशान्त मन को करे तज वह कारोबार।।
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अपने मुहँ से क्या कहूँ अब मैं अपना हाल।
अन्तरयामी आपसे छिपा नहीं अहवाल।।
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साधक जिसकी आत्मा पितर लोक कर पार।
सिद्धलोक विचरण करे निज सामर्थ्य अनुसार।।
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धन सम्पत्ति माल ज़र ज़न ज़मीन घरबार।
सब अस्थायी वस्तुएँ स्थायी नाम आधार।।
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सहजासन सबसे कठिन बिन प्रयास श्रमहीन।
केवल निष्ठा भाव से हो इस पर आसीन।।
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कार्तिक काल कठोर है दे नहीं पल भर छूट।
भाण्डा गढ़ा कुम्हार ने गया अचानक फूट।।
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पपिहे ने पी-पी कहा कोयल बोली कूउउ।
उनकी देखादेखी मैं बोला अल्ला-हूउउ।।
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थोड़े दिन में व्यक्ति फिर डूबे माया माहिं।
इस जग की निस्सारता याद रहे फिर नाहिं।।
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गुरु सम पूरी सृष्टि में कोई नहीं नरेश।
गुरु की छवि में देखिये ब्रह्मा विष्णु महेश।।
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भ्रम ही सही पर जब तलक फल की आस न होय।
ऐ नरेश संसार में कर्म करे नहीं कोय।।
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लक्षण हैं उत्तेजना तीव्र श्वास-प्रश्वास।
रक्तचाप द्रुत क्रोध में चिन्तन-मनन विनास।।
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इनके ऊपर सिद्ध है गुरु-पद आसीन।
चतुर्थ कोटि में ब्रह्म हैं प्रतिपल प्रभु में लीन।।
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ब्रह्म-मिलन के बाद जब लौटे तन में जीव।
बक़ा प्राप्त कर बुद्ध हो साधक मोद अतीव।।
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जैसे बिन अभ्यास के कोई हुनर नहीं आए।
वैसे बिन अभ्यास के वृत्ति न बदली जाए।।
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यदि भीतर जागृत रहे प्रिय-वियोग की आग।
अनुरागी तन सहित भी सम्भव है वैराग।।
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इच्हा प्राप्ति अभीष्ट की है मन का संकल्प।
और अनिष्ट परिहार की इच्हा बने विकल्प।।
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मन के जीते जीत है मन के हारे हार।
सेहजासन के सामने सिंहासन बेकार।।
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इसी चक्र के नाम हैं दिव्यनेत्र शिवनेत्र।
दिव्य दृष्टि देकर करे तेजस सब तन-क्षेत्र।।
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बुद्धों की संगत मिले सिद्धों की आसीस।
ऐसा जीवन यदि मिले जन्म धरें दस-बीस।।
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चलकर अपने पाँव से कटे साधना पन्थ।
गोद उठाकर ले चले साधू न कोई ग्रन्थ।।
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ऋषियों ने जिस सत्य को किया स्वयं अनुभूत।
कालान्तर में बन गया वह षड-दर्शन पूत।।
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कंकर मिट्टी जोड़के भवन करे तैयार।
बना-बनाया ढाह दे कौन ऐसा मेमार।।
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अहम पिता माँ वासना क्रोध पूत नृशंस।
जिसके अंगना खेलते उसके घर विध्वंस।।
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जिन कर्मों से जागती विस्मृति उनको त्याग।
तन से जग को भोग ले मन से हरि अनुराग।।
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बिन प्रयास मोहजाल से छूटी सके नहीं कोय।
ज्यों-ज्यों भीगे कामरी त्यों-त्यों भारी होय।।
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माँ सत्ता धन बाप की अहंकार सन्तान।
जिसके अंगना जा घुसे उसके घर तूफ़ान।।
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ऊँच-नीच छोटा-बड़ा हीन-श्रेष्ठ नहीं कोय।
सबके सब ब्रह्मांश हैं रूप नाम कुछ होय।।
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करुणामय करुणाकरण करुणापति करुणेश।
जाने अजाने पाप की माँगे क्षमा नरेश।।
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पहले तल पर जागृति जग को जान अनित्य।
परम्परा में प्राप्त जो करो धर्म के कृत्य।।
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वह नरेश उत्तम पुरुष जिये मरे जो नित्य।
चीरे माया-मेघ को उभरे ज्यों आदित्य।।
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फ़िक्र आनागत की करे बीते का ग़म खाए।
कल और कल के पाट में वर्तमान पिस जाए।।
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दूर रखो संकल्प से निन्दा चोरी रोग।
मन प्रमुदित हर्षित रहे कभी न व्यापे सोग।।
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रूप सभी ये भक्ति के करें एक ही काम।
जागृत कर सद्वृत्ति को मन को दें विश्राम।।
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उसकी महिमा क्या कहें जो साधन-सम्पन्न।
चिल्गोज़ा दे बर्फ़ में मिट्टी में दे अन्न।।
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करे एक यह मूढ़ मन मर्यादा को भंग।
अधोमुखी हैं अन्यथा तन के सारे अंग।।
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हम सब हैं कठपुतलियाँ डोर किसी के हाथ।
वैसे-वैसे हम करें जैसे कराए नाथ।।
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भव को सागर कर दिया निज छवि-दर्शन हेतु।
किन्तु ब्रह्म ने साथ ही दिया ध्यान का सेतु।।
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तन को कैसे मान लें प्राणी की पहचान।
प्राणी तो कोई और है तन उसका परिधान।।
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माया का और ब्रह्म का रिश्ता गहन गंभीर।
बिना नीर नदिया नहीं बिन नदिया नहीं नीर।।
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साधन भी शुभ चाहिए साध्य अगर है ठीक।
कोण बनाए किस तरह टेढ़ी-मेढ़ी लीक।।
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वेद ग्रन्थ सब पढ़ लिए पढना न आया मौन।
पढ़-लिखकर अनपढ़ रहा मुझ-सा मूरख कौन।।
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मिलता है तो खोज ले बुद्धों का सत्संग।
मन प्रमुदित पुलकित रहें तेरे अंग-प्रत्यंग।।
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कर्म बिना कैसे निभे मानव तन का धर्म।
जप तप है किस काम का त्याग दिया यदि कर्म।।
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काम ग़लत भी ठीक है यदि मन में नहीं चोर।
भरत पादुका सिर धरी वाह-वाह चहुँ ओर।।
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दीक्षित साधक के लिए योग नहीं अनिवार्य।
उसकी अपनी ऊर्जा करे अपेक्षित कार्य।।
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कितने दिन यह ज़िन्दगी यह जग कितनी देर।
क्या जाने किस मोड़ पर यम-सेना ले घेर।।
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आत्मा लौटे देह में ब्रह्म-ऊर्जा ले संग।
हर समाधि का सहज फल पुलकित अंग-प्रत्यंग।।
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ऊर्जा देने से बड़ा नहीं है पर-उपकार।
दोनों हाथों बाँट दो ऊर्जा का भण्डार।।
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यदि तेरा आचरण हो प्रकृति के अनुकूल।
दैहिक बौद्धिक मानसिक सब दुख हों निर्मूल।
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साधक जिसकी आत्मा निकले नभ को चीर।
भँवर गुफा का तम लखे लखे वैतरणी नीर।।
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तीनों नदियाँ पृष्ट की मिलें यहाँ पर आए।
युक्त त्रिवेणी नाम तब आज्ञाचक्र धराए।।
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साधक वह गुरु-मंत्र का मिला जिसे वरदान।
गुरु के संरक्षण तले जो करता है ध्यान।।
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दूषित काम-कलाप से जगे बोध अपराध।
संयम काम-कलाप से ऊर्जा चले अबाध।।
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वही लोग वही आप हम वही सृष्टि का साज।
माया के वश हो गए परिचय के मोहताज।।
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निष्ठा में बाधा पड़े श्रद्धा हो विकलांग।
काल-बेली संशय बढ़े सोखे तरु सर्वांग।।
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उसने ही सब सुख दिये जिसने दिया शरीर।
तन से भोगो जगत को मन से रहो फ़कीर।।
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हिरदे में छवि ब्रह्म की जिह्वा पर प्रभु-नाम।
भोगो इस संसार को कर्म करो निष्काम।।
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सहज रहो हर हाल में हँसो हँसी जब आय।
रोवो तब-तक ओक भर जब तक मन न अघाय।।
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हर राजा संग्रह करे धन धरती सुख साज।
ऐसा राजा कौन जो पहने फ़कीरी ताज।।
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तू जिसको अपना कहे वह घर किसका ठौर।
तुझसे पहले था कोई बाद तेरे कोई और।।
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द दाना कोई नहीं कोई नहीं नादान।
अपना-अपना कर्मफल भोगे सकल जहान।।
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मन जब यह निश्चय करे जग टेसू का फूल।
उपजे स्थिर वैराग्य तब खोजे अपना मूल।।
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ध्यान न सबके वास्ते ध्यान न सबका भाग।
ध्यान कोई बिरला करे जिसके अन्दर आग।।
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प्रकृति के आकार में निहित ब्रह्म का रूप।
भाव-भंगिमा ब्रह्म की वर्षा हो या धूप।।
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काया माया भाग हैं कर्मों का प्रारब्ध।
जो तूने बोया नहीं कैसे हो उपलब्ध।।
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भिक्षुक साधू सन्त सब होते नहीं फ़क़ीर।
अक्षर-अक्षर शब्द का भरा ज्ञान गम्भीर।।
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निराकार प्रिय से करो इतना गहरा नेह।
उतरे हिय-अंगनाई में धरकर सूक्षम देह।।
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ठ ठण्डी हो जाएगी जिस दिन तेरी देह।
भूतल नीचे बास हो ऊपर नीचे खेह।।
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तू बादल तू दामिनी तू नदिया तू प्यास।
निज के बाहर निज निरख समझ सृष्टि की रास।।
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अल्ला-हू का विर्द हो या हो ॐ का जाप।
श्वास सधे तन स्वस्थ हो मिटे हृदय का ताप।।
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साधक वह जिसको मिले सतगुरु का अनुराग।
शंका तर्क वितर्क को दे जो मन से त्याग।।
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माटी सम तन के लिए सौ साधन सौ यत्न।
एक न उसके वास्ते छिपा जो भीतर रत्न।।
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यहाँ चाहिए या वहाँ सोचो तुम सम्मान।
सहजासन मिलना कठिन सिंहासन आसान।।
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मैं सस्सी मैं सोहणी मैं साहिबाँ मैं हीर।
साबित कर दिखलाऊँ मैं भेज कोई गुरु पीर।।
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जब तक सीमाहीन हैं लोभ मोह मद काम।
तब तक यह सम्भव नहीं मन पावे विश्राम।।
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कर्मकाण्ड के मन्त्र तो हर पंडित ले बोल।
ऐसा पण्डित कौन जो ऊर्जा-पट दे खोल।।
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बिन सत्ता के धन नहीं बिन धन सत्ता नाहीं।
दोनों मिल क्रीड़ा करें अहंकार उपजाहिं।।
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हम सब हैं कठपुतलियाँ डोर किसी के हाथ।
वैसे-वैसे हम करें जैसे कराए नाथ।।
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पूर्व साधना चार तल जब तक हों नहीं पार।
पंचम तल की कामना तब तक है बेकार।।
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कैसी करुणा प्रभु करी कैसी दया दिखाई।
मूर्च्छित करके कह दिया अब सोना नहीं भाई।।
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मनन चरण है दूसरा गुरु-उपदेश विचार।
निज विवेक से जान लो गुरु-वचनों का सार।।
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शून्य चक्र मस्तिष्क में अन्तिम सप्तम चक्र।
जगे ब्रह्म-ऊर्जा दिखे यत्र तत्र सर्वत्र।।
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ये याद आए हर समय जिसे जगत का पीर।
और न कुछ सूझे जिसे उसको कहें फ़क़िर।।
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वेद ग्रन्थ सब पढ़ लिए पढ़ना न आया मौन।
पढ़-लिखकर अनपढ़ रहा मुझ-सा मूरख कौन।।
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मुर्शिद के अंगना बजे ब्रह्मनाद का चंग।
कानों में रस घुल रहा नाचें अंग-प्रत्यंग।।
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करे प्रकाशित दिव्यता मन में यही विचार।
सतसई यह अध्यातम की रची लोक उपकार।।
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हंडिया तोड़ी पीर ने कर भोजन धो हाथ।
जो कल देगा अन्नजल हंडिया भी दे साथ।।
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आत्मा की छवि में निहित परमात्मा का रूप।
खोजो आत्मानन्द में ब्रम्हानन्द अनूप।।
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हे दाता मोहिं दीजिए भक्ष्य अभक्ष्य शऊर।
पेट भरे या नहीं भरे नीयत भरे ज़रूर।।
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मन क्या है यह जानना नहीं इतना आसान।
पल में हो नवनीत सम पल में वज्र समान।।
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तुझसे नाता जोड़ के छूटे सब सम्बंध।
अर्थहीन लगने लगे स्पर्श रूप रस गंध।।
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तन मन अर्पण कर दिया अब जानें गुरुदेव।
राखें मारें जो करें अब इक उनकी टेव।।
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एक चोर ही कम नहीं करने को कंगाल।
पाँच-पाँच जिस गेह में उसका कौन हवाल।।
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आँखें जो कुछ देखतीं वह भी नहीं असत्य।
किन्तु दृष्टि के सत्य से बड़ा है अनुभव सत्य।।
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क्या मेरी आराधना कैसी मेरी भक्ति।
निसदिन माँगूँ आपसे धन वैभव सुख शक्ति।।
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सन्त नहीं साधू नहीं नहीं पण्डित विद्वान।
सदय प्रकृति ने दिया कविता का वरदान।।
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भीतर के सुख से बड़ा बाहर सुख नहीं कोय।
मन विचलित उतना अधिक जितना अधिक धन होय।।
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सर्वप्रथम गुरुदेव के श्री-चरणों का ध्यान।
जिनके अनुग्रह से मिला मुझको विद्या-दान।।
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मन क्या हो यह जानना नहीं इतना आसान।
पल में हो नवनीत सम पल में वज्र समान।।
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पवन हमारे पीव को देना यह सन्देश।
झोंका भेजे गन्ध का महक उठे परिवेश।।
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हानि रोग संकट समय याद आवे भगवान।
यह अस्थिर वैराग्य है कुछ दिन का मेहमान।।
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मैं क्या हूँ मैं कौन हूँ क्या है मेरे हाथ।
अपना नाम जपाइ ले करि अनुकम्पा नाथ।।
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दे कुछ या नहीं दे मगर कर यह दीन दयाल।
मेरे लब पर आयु भर आए नहीं सवाल।।
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क्या नमाज़ क्या आरती क्या ज़कात क्या दान।
व्रत रोज़ा किस अर्थ का यदि मन में अभिमान।।
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तन का ताप उतार दे देकर कड़वी नीम।
मन का संशय मेट दे ऐसा कौन हकीम।।
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नाम जपा और साथ ही लई मजूरी माँग।
निष्ठा अर्पण भाव का काहे रच्या सवाँग।।
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संशय और विवेक में चलता है संघर्ष।
पर विवेक की जीत में आत्मा का उत्कर्ष।।
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क्या बादल की दोस्ती क्या बादल से आस।
सागर भर पानी बिना बुझे न मरु की प्यास।।
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रोटी कपड़ा गेह की चिन्ता हरदम यार।
उस पर भी कुछ छोड़ दे जो है पालनहार।।
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यह माया भी ब्रह्म का अपना ही विस्तार।
प्राणी सुख दुख भोगता अपने कर्म अनुसार।।
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साधक जिसकी आत्मा करे नित्य परवाज़।
श्रवण रहें सुनते सदा अनहद की आवाज़।।
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साधन भी शुभ चाहिए साध्य अगर है ठीक।
कोण बनाए किस तरह टेढ़ी-मेढ़ी लीक।।
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सन्त नहीं साधू नहीं नहीं पण्डित विद्वान।
सदय प्रकृति ने दिया कविता का वरदान।।
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कुछ तो गुण पैदा करो अपने अन्दर यार।
क्यों तुमको दीक्षा मिले क्यों गुरु करे स्वीकार।।
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तन का ताप उतार दे देकर कड़वी नीम।
मन का संशय मेट दे ऐसा कौन हकीम।।
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संशय और विवेक में चलता है संघर्ष।
पर विवेक की जीत में आत्मा का उत्कर्ष।।
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आत्मा की छवि में निहित परमात्मा का रूप।
खोजो आत्मानन्द में ब्रह्मानन्द अनूप।।
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भीतर के सुख से बड़ा बाहर सुख नहीं कोये।
मन विचलित उतना अधिक जितना अधिक धन होए।।
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बिन अनुभव किस काम का कोरा पुस्तक-ज्ञान।
काम न दे तलवार का कैसी भी हो म्यान।।
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नहीं आरती अर्चना जब तक नहीं अनुराग।
बिन अनुभव संभव नहीं आशा तृष्णा त्याग।।
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हंडिया तोड़ी पीर ने कर भोजन धो हाथ।
जो कल देगा अन्नजल हंडिया भी दे साथ।।
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इश्क़ चरण है दूसरा केवल प्रभु से प्यार।
बनी प्रेमिका आत्मा प्रेमी ब्रह्म अपार।।
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