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Wednesday, September 1, 2010

विभाजन


यह माना कि तुमने धरा बाँट ली है,

मगर क्या कभी बाँट लोगे पवन भी?

कभी चाँदनी का विभाजन करोगे?

यह माना कि तुम बाँट लोगे गगन भी I


मुहल्ले शहर गाँव बाज़ार कूचे,

गगन चूमते पर्वतों की शिखाएं I

यह माना कि तुम बाँटने पर जो आये,

तो बँट जाएँगी मकबरों की शिलाएं I

मगर क्या कभी धूप भी बँट सकेगी?

यह माना कि तुम बाँट लोगे अरुण भी I


पके खेत खलिहान भण्डार धन के,

मचलती हुई खेतियाँ बाँट लोगे I

यह माना कि तुम बाँटने पर जो आये,

तो धरती की सब बेटियाँ बाँट लोगे I

मगर क्या कभी मौत भी बँट सकेगी?

यह माना कि तुम बाँट लोगे कफ़न भी I


बसें गाड़ियाँ दफ़्तरों के मुलाज़िम,

किले खाइयाँ खण्डहर बाँट लोगे I

यह माना कि तुम बाँटने पर जो आये,

तो पूजा इबादत के घर बाँट लोगे I

मगर क्या सुगंधी कभी बँट सकेगी?

यह माना कि तुम बाँट लोगे चमन भी I


विभाजन कठिन तो नहीं दोस्तो, पर,

कभी काश सोचो ज़रा ध्यान देकर I

कि इक बार धागा अगर टूट जाए,

तो जुड़ता है, लेकिन नयी गाँठ लेकर I

यह माना कि खुशियाँ बँटा लोगे फिर भी,

कभी काश तुम बाँट पाओ चुभन भी I

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