यह माना की तुमने धरा बाँट ली है,
मगर क्या कभी बाँट लोगे पवन भी?
कभी चाँदनी का विभाजन करोगे?
यह माना कि तुम बाँट लोगे गगन भी।
मुहल्ले शहर गाँव बाज़ार कूचे,
गगन चूमते पर्वतों की शिखाएँ।
यह माना कि तुम बाँटने पर जो आए,
तो बँट जाएँगी मक़बरों की शिलाएँ।
मगर क्या कभी धुप भी बँट सकेगी?
यह माना कि तुम बाँट लोगे अरुण भी।
पके खेत खलिहान भण्डार धन के ,
मचलती हुई खेतियाँ बाँट लोगे।
यह माना कि तुम बाँटने पर जो आए,
तो धरती की सब बेटियाँ बाँट लोगे।
मगर क्या कभी मौत भी बँट सकेगी?
यह माना कि तुम बाँट लोगे कफ़न भी।
बसें गाड़ियाँ दफ़्तरों के मुलाज़िम,
क़िले खाइयाँ खण्डहर बाँट लोगे,
यह माना कि तुम बाँटने पर जो आए,
तो पूजा इबादत के घर बाँट लोगे।
मगर क्या सुगन्धि कभी बँट सकेगी?
यह माना कि तुम बाँट लोगे चमन भी।
विभाजन कठिन तो नहीं दोस्तो, पर,
कभी काश सोचो ज़रा ध्यान देकर।
कि इक बार धागा अगर टूट जाए,
तो जुड़ता है, लेकिन नयी गाँठ लेकर।
यह माना कि खुशियाँ बटाँ लोगे फिर भी,
कभी काश तुम बाँट पाओ चुभन भी।